कट्टर रूढ़िवादियों का कहना है कि अस्पृश्यता अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। क्योंकि अस्पृश्यता के बारे में न सिर्फ़ स्मृतियों में दिया है बल्कि धर्म सूत्रों में भी, जो कि कुछ विद्वानों के अनुसार ईसा के पहले लिखे गए हैं।
ये ठीक बात है। मगर क्या धर्म सूत्र में अस्पृश्यता और अछूतों का उल्लेख उन्ही अर्थों में हुआ है जिन अर्थों में हम आज समझते हैं? धर्म सूत्र अस्पृश्य के साथ कुछ अन्य शब्दों का भी उपयोग करते हैं; अन्त्य, अन्त्यज, अन्त्यवासिन, और वाह्य। इन शब्दों का प्रयोग स्मृतियों में भी हुआ है। तो क्या अन्त्य, अन्त्यज आदि इन शब्दों का भी वही अर्थ है जो अस्पृश्य का?
दुर्भाग्य से इन शब्दों का प्रयोग धर्म सूत्र में बहुत सीमित है और कहीं भी यह नहीं बताया गया है कि इन शब्दों अन्तर्गत कौन कौन सी जातियां आती हैं ? स्मृतियों में बताया है। मगर हर जगह अलग अलग जातियां दी गई हैं, कहीं सात कहीं बारह। उदाहरण के लिये वेदव्यास स्मृति के अनुसार चाण्डाल और श्वपाक अन्त्यज हैं किन्तु अत्रि स्मृति के अनुसार नहीं। अत्रि के अनुसार बुरुद और कैवर्त अन्त्यज हैं मगर वेदव्यास के अनुसार नहीं।
कहने का सार यह है कि न तो धर्म सूत्र और न ही स्मृतियों से कुछ निश्चय हो पा रहा है। फिर ये ग्रंथ यह भी नहीं बताते कि ये अन्त्य, अन्त्यज, अन्त्यवासिन, और वाह्य अस्पृश्य थे या नहीं? इनके बारे में जो अलग से जानकारी है शायद उस से कुछ सहायता मिले।
जैसे मनु ने वाह्य का उल्लेख किया है। मगर उसको समझने के लिए मनु के वर्गीकरण को समझना ज़रूरी है। मनु लोगों केपहले दो वर्ग बनाते हैं, १) वैदिक और २)दस्यु। फिर वैदिक जनों को चार उप वर्ग में बिभाजित करते हैं;
१) जो चातुर्वर्ण के भीतर हैं
२)जो चातुर्वर्ण के बाहर हैं
३)ब्रात्य
४)पतित या जाति बहिष्कृत
चातुर्वर्ण के भीतर वही जन गिने जाते थे जिनके माता पिता का वर्ण एक ही हो। नहीं तो अलग अलग वर्ण के माता पिता की सन्तान को वर्ण संकर कह कर चातुर्वर्ण से बाहर कर दिया जाता था। चातुर्वर्ण से बाहर इन लोगों के फिर दो भेद किये गये।१)अनुलोम, जिनके पिता ऊँचे वर्ण के और माता नीचे वर्ण की२)प्रतिलोम, जिनकी माता ऊँचे वर्ण की और पिता नीचे वर्ण केअनुलोमों को मनु ने वाह्य कहा है और प्रतिलोमों को हीन किन्तु दोनों को ही अछूत नहीं कहा है।
अब अन्त्य शब्द के बारे में। अन्त्य एक वर्ग के रूप में मनु स्मृति(४.७९) में आता है फिर भी मनु उसकी गणना नहीं करते। मेधातिथि ने अपने भाष्य में कहा है कि अन्त्य का अर्थ है म्लेच्छ। बुलहर ने इस का अनुवाद नीच जाति के रूप में किया है। बृहदारण्यक उपनिषद में एक कथा है जिसमें अन्त्य शब्द का अर्थ गाँव की सीमा पर बसे हुए लोगों से लिया गया है।
अब अन्त्यज। महाभारत (शांति पर्व १०९.९) में अन्त्यजों के सैनिक होने का उल्लेख है। सरस्वती विलास के अनुसार रजकों की सात जातियां अन्त्यज में गिनी जाती हैं। वीरमित्रोदय का कहना है रजक आदि अठारह जातियां सामूहिक तौर पर अन्त्यज कहलाती हैं। मगर ये कहीं नहीं कहती कि अन्त्यज अछूत थे।
और अन्त्यवासिन? क्या वे अछूत थे? अमर कोश के अनुसार अन्त्यवासिन का अर्थ है गुरु के घर पर रहने वाला ब्रह्मचारी। ये ब्रह्मचारी जो सिर्फ़ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही हो सकते थे, अछूत नहीं हो सकते थे। वशिष्ठ धर्म सूत्र के अनुसार अन्त्यवासिन शूद्र पिता और वैश्य माता की संतान हैं। मनु के मत से वे चाण्डाल पिता और निषाद माता की संतान। मिताक्षरा का कहना है कि वे अन्त्यजों का ही एक उपवर्ग हैं।
अभी तक जो जानकारी मिली है उस से इन अन्त्यज आदि को आधुनिक अर्थों में अछूत कहना मुश्किल है। फिर भी अगर कुछ लोग ये मानते हो कि नहीं वे अछूत ही थे तो पूछा जाना चाहिये कि उस काल में अस्पृश्य का अर्थ क्या था?
उदाहरण के लिए एक अस्पृश्य जाति चाण्डाल को लें। चाण्डाल कई तरह के लोगों के लिए एक शब्द है। शास्त्रों में पाँच तरह के चाण्डालों का वर्णन है।
१)शूद्र पिता और ब्राह्मण माता की संतान
२)कुँवारी कन्या की सन्तान
३)सगोत्र स्त्री की संतान
४)सन्यासी हो कर पुन: गृहस्थ होने वाले की संतान
५)नाई पिता और ब्राह्मण माता की संतान
हम मान लेते हैं कि इन पाँचो के सन्दर्भ में शुद्ध होने के आवश्यक्ता बताई गई है। तो शुद्ध होने का शास्त्रोक्त नियम हैं;जब ब्राह्मण किसी चाण्डाल, रजस्वला स्त्री, पतित, प्रसूता, शव या उसे जिसने शव का स्पर्श किया हो, को स्पर्श करता है तो स्नान करने से शुद्ध होता है। (मनु स्मृति ५.८५)
इसी तरह के अन्य नियम दूसरे शास्त्रों में भी मिलते हैं। इन नियमों से दो बातें स्पष्ट होती हैं।
१)चाण्डाल के स्पर्श से केवल ब्राह्मण अशुद्ध होता था।
२)और सम्भवतः आनुष्ठानिक अवसरों पर ही शुद्ध अशुद्ध का विचार किया जाता था।
यदि ये निष्कर्ष ठीक है तो यह अशुद्धि का मामला है जो अस्पृश्यता से बिलकुल अलग है। अछूत सभी को अपवित्र करता है मगर अशुद्ध केवल ब्राह्मण को अपवित्र करता है। अशुद्ध का स्पर्श केवल अनुष्ठान के अवसर पर ही अपवित्रता का कारण बनता है मगर अछूत सदैव अपवित्र बनाता है।
इसके अलावा एक और तर्क है जिससे सिद्ध होता है कि धर्म सूत्र में जिन जातियों के नाम आए वे अछूत थीं। इस तर्क का आधार अध्याय २ में उल्लिखित ऑर्डर इन कौंसिल की ४२९ जातियों की सूची है। स्मृतियों और इस सूची की तुलना करने पर कुछ बातें सामने आती हैं;
१)स्मृतियों में दी गई ऐसी जातियों की अधिकतम संख्या १२ है, जबकि इस सूची में इनकी संख्या ४२९ है।
२)४२९ में ४२७ जातियों का नाम स्मृतियों में नहीं है।
३)स्मृतियों में जिनका नाम है, वे ऑर्डर इन कौंसिल की सूची में नहीं हैं।
४)केवल चमार ही एक ऐसी जाति है जो दोनों जगह है।
अगर ये दोनों सूचियां एक ही वर्ग के लोगों की हैं और ये सिर्फ़ अस्पृश्यता के विस्तार का मामला है तो इसका कारण क्या है? ऐसा कैसे सम्भव है कि अकेले चमार को छोड़कर ४२८ का तब अस्तित्व ही नहीं था? और यदि था तो उनका उल्लेख स्मृतियों में क्यों नहीं मिलता? इस प्रश्न को कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता।
अब यदि यह मान लिया जाय कि ये दो अलग अलग वर्गों की सूचियां हैं। शास्त्र वाली सूची अपवित्र जनों की है जबकि ऑर्डर इन कौंसिल वाली सूची अछूतों की तो इन सवालों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। सिवाय इस पहलू के कि चमार को दोनों सूचियों में कैसे स्थान प्राप्त है? अकेले चमार की दोनों सूचियों में उपस्थिति से यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि दोनों सूचियाँ एक ही लोगों के बारे में हैं बल्कि अगर ये समझा जाय कि ये दो सूचियां दो अलग अलग लोगों के बारे में हैं; एक अपवित्रों की और एक अछूतों की। तो सिर्फ़ इतना सिद्ध होता है कि चमार जो कभी अपवित्र थे बाद में अछूत हो गये।
स्मृतियों में वर्णित बारह अपवित्र जातियों में अकेले चमार को ही क्यों अछूत बनाया गया, ये समझना कठिन नहीं। चमार और अन्य अपवित्र जातियों ने जिस बात ने भेद पैदा किया है वह है गोमांसाहार। जब गो को पवित्रता का दरजा मिला और गोमांसाहार पाप बना, तब अपवित्र लोगों में जो गोमांसाहारी थे केवल वही अछूत बने। स्मृतियों की सूची में अकेले चमार ही गोमांसाहारी है।अस्पृश्यता के मूल कारण गोमांसाहार है और यह अपवित्रता से अलग है। यही बात छुआछूत के जन्म का काल निर्णय करने में निर्णायक सिद्ध होगी।
अध्याय १५: अपवित्र और अछूत
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8 टिप्पणियां:
brilliant research. islia sabhi brahmans aur upper cast aaj bhi chamar se hi jyada jealous rakhti hai..sahi kaha-2
brilliant research. islia sabhi brahmans aur upper cast aaj bhi chamar se hi jyada jealous rakhti hai..sahi kaha-2
चमार जाति से इस दुर्भाव का मुख्य कारण सिर्फ ब्राहम्ण जाति के पढ़े लिखे लोग थे जिन्होंने चमार जाति के लोगों को शिक्षा ग्रहण नहीं करने दी और इस जाति के लोगों को सिर्फ दास बनाकर रखा, जिससे इनमे अच्छे-बुरे, गलत-सही का भेद करने का दिमाग भी नहीं पनपने दिया! इन लोगों ने सामाजिक व्यवस्था ऐसी कर दी कि
चमार जाति के लोगों को जानवर जैसा जीवन जीने को मजबूर होना पड़ा, फिर इनसे जबरन बेगार करवाकर इन्हें पेट भर भोजन भी नहीं दिया जाता था! इसलिए इन लोगों ने जानवर जैसा व्यवहार करना शुरू कर दिया होगा, यानि माँस खाना शुरू कर दिया होगा!फिर वह माँस गाय का हो या फिर बकरी का, भूख में पेट भर भोजन मानकर माँस खाया जाए या घास कोई फर्क नहीं पड़ता! बाद में माँस का स्वाद चमार जाति के लोगों के मुहँ चढ़ गया जो स्वादिष्ट भी होता है और शरीर में भरपूर ताकत भी पैदा करता है, तो ब्राह्मण पुरूषों को चमार जाति के लोगों के ह्रष्ट-पुष्ट शरीर को देखकर बड़ी जलन और आश्चर्य हुआ होगा और उन्होंने भी चोरी छिपे माँस खाना शुरू कर दिया!जब उन्हें भी माँस का स्वाद अच्छी लगा और शरीर के लिए पौष्टिक आहार तो धीरे धीरे माँस खाने का प्रचलन ब्राह्मणों में भी बढ़ने लगा और इसलिए आज भी करोड़ों ब्राह्मण माँसाहारी हैं और यह संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है! इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह माँस किसी जानवर का है या फिर किसी मुर्गे का! माँस तो आखिर माँस है! फिर किस धर्म की बात करते हैं ये ब्राह्मण?
Kio ucha nahi hota. Aur kio acchut nahi hota.
Es duniya mein do sareni hai.
Ek amir shiksit dusra garib ashiksit.
Jab aarth nahi tha jab aan nahi tha jab vastra nahi tha.
Tab hamara purvaj Maas khakar rahte the.
O change kute ya suar ka hi kyo Na ho.
Aaj hum kinda unhe ke santan hai.
To ye gau Maas Na khane ka fashion batakar kio shrest kaise ho sakta hai.
Yàar Mind develop kar.
Har purani chej sona nahi hoti
Ved mei likhi har baat my dear last nahi hoti.
����������������
cs.vidyabhushan@gmail.com
Kio ucha nahi hota. Aur kio acchut nahi hota.
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Supar bhai I like you your comments
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