अध्याय २ : हिन्दुओं में छुआछूत

अशुद्धि के बारे में हिन्दुओं और आदिम तथा प्राचीन समाज के लोगों में कोई भेद नहीं है।

मनु ने जन्म, मृत्यु तथा मासिक धर्म को अशुद्धि का जनक स्वीकार किया है। मृत्यु से होने वाली अशुचिता व्यापक और दूर दूर तक फैलती थी। यह रक्त सम्बंध का अनुसरण करती थी और वे सभी लोग जो सपिण्डक और समानोदक कहते हैं, अपवित्र होते थे। जन्म और मृत्यु के अतिरिक्त ब्राह्मण पर तो अपवित्रता के और भी अनेक कारण लागू थे जो अब्राह्मणों पर नहीं। शुद्धि के उद्देश्य से मनु ने इस विषय को तीन तरह से लिया है;

१. शारीरिक अशुद्धि
२. मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक
३. नैतिक अशुद्धि

नैतिक अशुद्धि मन में बुरे संकल्पों को स्थान देने से पैदा होती है। उसकी शुद्धि के नियम तो केवल उपदेश और आदेश ही हैं। किंतु मानसिक और शारीरिक अशुद्धि दूर करने के लिये जो अनुष्ठान है वे एक ही हैं, उनमें पानी, मिट्टी, गो मूत्र कुशा और भस्म का उपयोग शारीरिक अशुद्धि को दूर करने में होता है। मानसिक अशुद्धि दूर करने में पानी सबसे अधिक उपयोगी है।

उसका उपयोग तीन तरह से है। आचमन, स्नान तथा सिंचन। आगे चलकर मानसिक अशुद्धि दूर करने के लिये पंच गव्य का सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान हो गया। गौ से प्राप्त पाँच पदार्थों गोमूत्र, गोबर, दूध दही और घी से इसका निर्माण होता है।

व्यक्तिगत अशुचिता के अलावा हिन्दुओं का प्रदेशगत और जातिगत अशुद्धि और उसके शुद्धि करण में भी विश्वास रहा है, ठीक वैसी ही जैसी प्राचीन रोम के निवासियों में प्रथा प्रचलित थी।

लेकिन यहीं इतिश्री नहीं हो जाती क्योंकि हिन्दू एक और तरह की छुआछूत मानते हैं.. कुछ जातियां पुश्तैनी छुआछूत की शिकार हैं.. इन जातियों की संख्या इतनी है कि बिना किसी की विशेष सहायता के एक सामान्य व्यक्ति के लिये उनकी एक पूरी सूची बना लेना आसान नहीं.. भाग्यवश १९३५ के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के अधीन निकाले गये ऑर्डर इन कॉउन्सिल के साथ एक ऐसी सूची संलग्न है..

इस सूची में भारत के भिन्न भिन्न भागों मे रहने वाली ४२९ जातियां सम्मिलित हैं.. जिसका मतलब है कि देश में आज ५-६ करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके स्पर्श मात्र से हिन्दू अशुद्ध हो जाते हैं..हिन्दुओं की यह छुआछूत विचित्र है संसार के इतिहास में इसकी तुलना नहीं है..अहिन्दू आदिम या प्राचीन कालिक समाज से अलग इसकी विशेषताए हैं:

१. अहिन्दू समाज में यह शुचिता के यह नियम जन्म विवाह मृत्यु आदि के विशेष अवसरोंपर लागू होते थे किंतु हिन्दू समाज में यह अस्पृश्यता स्पष्टतः निराधार ही है।

२. अहिन्दू समाज जिस अपवित्रता को मानता था वह थोड़े समय रहती थी और खाने पीने आदि के शारीरि्क कार्यों तक सीमित थी। अशुद्धता क समय बीतने पर शुद्धि संस्कार होने पर व्यक्ति पुनः शुद्ध हो जाता था। परन्तु हिन्दू समाज में यह अशुद्धता आजीवन की है..जो हिन्दू उन अछूतों का स्पर्श करते हैं वे स्नानादि से पवित्र हो सकते हैं पर ऐसी कोई चीज़ नहीं जो अछूत को पवित्र बना सके। ये अपवित्र ही पैदा होते हैं, जन्म भर अपवित्र ही बने रहते हैं और अपवित्र ही मर जाते हैं।

३.अहिन्दू समाज अशुद्धता से पैदा होने वाले पार्थक्य को मानते थे वे उन व्यक्तियों तथा उनसे निकट सम्पर्क रखने वालों को ही पृथक करते थे। लेकिन हिन्दुओ के इअ छुआछूत ने एक समूचे वर्ग को अस्पृश्य बना रखा है।

४.अहिन्दू उन व्यक्तियों को जो अपवित्रता से प्रभावित हो गये हों, कुछ समय के लिए पृथ क कर देते थे मगर हिन्दू समाज का आदेश है कि अछूत पृथक बसें। हर हिन्दू गाँव में अछूतों के टोले हैं। हिन्दू गाँव में रहते हैं, अछूत गाँव के बाहर टोले में बसते हैं।

5 टिप्‍पणियां:

catch ....................if u can. ने कहा…

hi abhay tiwari ....tiwari ko achoot ki yaad kaise aa gayi ...rahul sanskrityayan ke bad ek do hi mile hai tumhare tarah.....vaisa ..aacha kam hai...mai ek....chamar hon ok ....ple mail meeeeeeeeeeeeeeeeid is shankyluck@gmail.com

Unknown ने कहा…

this is a true fact of history we accept and do the development in our thinking. But I oberved so many people give the explanation tradition thiks are how good? this is not a correct way to think how old thinks r good?

Unknown ने कहा…

यह सत्य है कि इस जाति व्यवस्था ने समाज की अपूर्णीय क्षति की है ।मनु ने किसी को भी अछूत नहीं कहा उनकी वर्ण व्यवस्था में अशिक्षित को शूद्र कहा है तथा आयु में बडे शूद्र को भी अन्य वर्णों द्वारा सम्मानीय कहा है ।जन्म से मनु ने सभी को शूद्र कहा तथा कर्म के अनुसार कोई भी वर्ण अपनी योग्यता के आधार पर अपने वर्ण को अपना सकता है ।मनु की व्यवस्था में ब्राह्मण के घर उत्पन यदि अशिक्षित है तो वह शूद्र ही है ।मनु की व्यवस्था योग्यता के आधार पर है न कि जन्म से ।यह व्यवस्था बाद में बनी तथा इतनी घृणित रूप में फैली कि इस को समाप्त करने के लिए आज हिंसा तक होने लगी है ।एक ही जाति में भी अपने को श्रेष्ठ तथा दूसरे को हीन कहा जाता है ।मैंने स्वयं देखा है कि हमारी ब्राह्मण जाति में कुछ गोत्र के लोगों को हीन तथा कुछ स्वयं को श्रेष्ठ कहते हैं ।आपस में विवाह नहीं करते ।अन्य जातियों में भी स्वयं को दूसरी जाति से श्रेष्ठ बताकर दूसरे को हेय माना जाता है ।यह ईश्वरकृत न्याय के विरुद्ध है ।हमें इस विषय पर पूर्वाग्रह से मुक्त होकर मानवीय दृष्टि से चिन्तन करना चाहिए ।शान्ति प्रकाश शास्त्री ।

घनश्याम ने कहा…

शास्त्री जी , पूजहि विप्र वेद गन हिना इसका मतलब क्या है

Unknown ने कहा…

मित्रवर उपरोक्त श्लोक चारों वेदों में नही छह शास्त्रों में नहीं उपनिषदों में नहीं ओर गीता में नहीं इसके अतिरिक्त सनातन के नाम पर लिखे गए ग्रन्थ ओर पुस्तक व्यापारियों और सत्ता के चाटुकारों द्वारा लिखित है इसलिए केवल वेदों पर विश्वास करो तो प्यार ह्रदय से निकलेगा क्योंकि सनातन से सुंदर धर्म दुनिया मे कोई नहीं।
जय माँ भारती